हिंदू पंचांग के अनुसार, कार्तिक मास में शुक्ल पक्ष की नवमी को आंवला नवमी या अक्षय नवमी के रूप में मनाया जाता है। इस दिन आंवले के पेड़ की पूजा करने का विधान है। इस दिन लोग आंवले के पेड़ की पूजा करते हैं। पूजन के पश्चात वृक्ष के नीचे बैठकर ही भोजन करने का भी विधान है। ऐसे में चलिए जानते हैं कि अक्षय नवमी या आंवला नवमी के दिन आंवले के पेड़ की पूजा क्यों की जाती है और इसका महत्व क्या है…
क्यों की जाती है आंवले के पेड़ की पूजा?
पौराणिक कथा के अनुसार, एक बार मां लक्ष्मी भ्रमण करने के लिए पृथ्वी लोक पर आईं। रास्ते में उन्हें भगवान विष्णु और शिव की पूजा एक साथ करने की इच्छा हुई। माता लक्ष्मी ने विचार किया कि एक साथ विष्णु एवं शिव की पूजा कैसे हो सकती है। तुलसी भगवान विष्णु को प्रिय होती है और बेलपत्र भगवान शिव को। मां लक्ष्मी को ख्याल आया कि तुलसी और बेल का गुण एक साथ आंवले के पेड़ में ही पाया जाता है।
ऐसे में आंवले के वृक्ष को विष्णु और शिव का प्रतीक चिन्ह मानकर मां लक्ष्मी ने आंवले की वृक्ष की पूजा की। कहा जाता है कि पूजा से प्रसन्न होकर विष्णु और शिव प्रकट हुए। लक्ष्मी माता ने आंवले के वृक्ष के नीचे भोजन बनाकर विष्णु और भगवान शिव को भोजन करवाया। इसके बाद स्वयं भोजन किया, जिस दिन मां लक्ष्मी ने शिव और विष्णु की पूजा की थी, उस दिन कार्तिक शुक्ल नवमी तिथि थी। तभी से कार्तिक शुक्ल की नवमी तिथि को आंवला नवमी या अक्षय नवमी के रूप में मनाया जाने लगा।
आँवला नवमी की पूजन विधि एवं सामग्री नीचे दी गयी है –
सामग्री :-
१)रोली
२)चावल
३)मेहँदी
४)नाड़ा
५)कच्चा सूत
६)आंवले
७)दिया
८)पानी का कलश
९)खिल पताशें
विधि :-
इस दिन आंवले के वृक्ष की पूजा की जाती है। इसके लिए आंवले के वृक्ष पर जल चढ़ाकर प्रसाद चढ़ाये। उसके बाद वृक्ष के चारों ओर कच्चा सूत व नाड़ा मिलाकर लपेटते हुए सात बार परिक्रमा करे। पूजा करके घी का दीप जलाये।
आँवला नवमी की कहानी :- प्राचीन समय में एक आँवलिया राजा था। वह रोज एक मन सोने के आंवले दान करता था और उसके बाद ही भोजन करता था। एक बार उसके बहु-बेटे सोचने लगे कि अगर यह इसी तरह रोज दान करता रहा तो एक दिन सारा धन समाप्त हो जायेगा। एक दिन उसके पुत्र ने राजा से कहा कि आप आंवले का दान बंद कर दे नहीं तो सारा धन समाप्त हो जायेगा। यह सुनकर राजा व रानी महल छोड़कर एक उजाड़ स्थान पर आ गए और आँवला दान न करने की स्तिथि में उन दोनों ने भोजन नहीं किया। यह देख भगवान सोचने लगे कि यदि हमने इनका मान नहीं रखा तो संसार में कोई हमें कैसे मानेगा। भगवान ने राजा को सपने में कहा कि तुम्हारी पहले जैसी रसोई हो गयी है और आंवले का पेड़ भी लगा है, दान करके तुम भोजन कर लो।
राजा ने उठकर देखा तो पहले जैसा राज पाठ हो गया और सोने के आंवले का वृक्ष भी लगा है। यह देख राजा-रानी दोनों ने सवा मन सोने के आंवले तोड़े व उनका दान करके फिर भोजन किया। दूसरी और राजा के बेटे-बहु से अन्नपूर्णा का बैर हो गया। यह देख आस-पास के लोगों ने उससे कहा कि पास ही जंगल में एक आँवलिया राजा है तुम उनके पास चले जाओ वो तुम्हारा कष्ट दूर करेंगे।
बहु-बेटे राजा के पास सहायता के लिए पहुंचे और रानी ने उन दोनों को पहचान लिया। रानी ने राजा से कहा कि इनसे हम काम करवाएंगे। काम कम करवाएंगे और मज़दूरी ज्यादा दे देंगे। एक दिन रानी ने बहु से कहा कि मेरा सिर धो दे। बहु सिर धोने लगी और उसकी आँख से आंसू निकलकर रानी की पीठ पर गिर गया। रानी ने कहा कि मेरी पीठ पर आंसू क्यों गिरा ? मुझे इसका कारण बताओ। बहु बोली कि मेरी सास की पीठ पर भी ऐसा ही मस्सा है जैसा आपकी पीठ पर है। वह रोज सवा मन के सोने के आंवले दान करते थे जिससे हमने सास-ससुर को घर से निकाल दिया।
बहु के आंसू देख रानी ने कहा कि हम ही तेरे सास-ससुर है। भगवान ने हमारा सत् रख लिया और हमें फिर से सब कुछ दे दिया जिसकी वजह से हम दान कर रहे है।हे भगवान ! जैसे तूने राजा-रानी की सुनी वैसे सबकी सुनना। इसके बाद बिंदायक जी की कहानी सुने।